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Tuesday, 6 June 2023

मिलिट्री मैन - कविता

मिलिट्री मैन - कविता


दशक चाकरी की वीरों सा|
पल-भर में क्यों अनदेख किया||

पलक झपकते दौड़ गए थे|
घुटनो के बल रेंग गए थे||

भारत की माटी को हमने|
जीवन का श्रृंगार दिया||

सौगंध हमारी वतन मिट्टी की|
शब्दों का आह्लाद दिया||

दशक निवृत सेवा का आया|
जीवन ने कुछ सीख बनाया||

जीवन का रंग बदल न पाया|
अपनों के संग रह न पाया||

सौतेलेपन समय हमें जब|
झटका है, पल-पल क्षण-क्षण||

दशक चाकरी की वीरों सा|
पल-भर में क्यों अनदेख किया||

-मेनका सिन्हा

Monday, 5 June 2023

आधूनिकता के बटन - कविता

 आधूनिकता के बटन - कविता


आधूनिकता का बटन दबाया|
मानवता क्यों छोड़ दिया||

बटन भरोसे लाखों मानव|
मानवता क्यों छोड़ दिया||

मानव की खाली जगहों को|
बटन भरोसे छोड़ दिया||

तिनका-तिनका जोड़ा जिसने|
पल भर में जीवन छोड़ दिया||

मानव की खाली जगहों को|
पैसों से क्यों तौल दिया||

आहे चीख पुकारे उनकी
काश सुनी तुमने होती||

मानव की खाली जगहों को|
मानव से होती भरी तुमने||

आधूनिकता का बटन दबाया|
मानवता क्यों छोड़ दिया||

- मेनका सिन्हा

Wednesday, 24 April 2019

आह की आहट - कविता

आह की आहट - कविता


ध्यान रहे यह, पल-पल क्षण-क्षण|
आहें न ले, बेगुनाह की||
आह की आहार तुम्हारी|
नाकाम कोशिश, साज़िश की||
फूटती जब, दर्द दिल का|
रूबरू, बेपर्द किस्सा||
जागीर की, जंजीर से तू|
कैद, कर सकते नहीं||
आह का आलम कभी|
सोने न देगी, चैन से||
शान की, शोहरत तुम्हारी|
लगा न दे, बेजान टीका||
साँस की, सरेआम शबनम|
नीलम न हो, बाजार में||
आह की, सूरत तुम्ह|
जीने न देगी, चैन से||
आहें कभी, मरती नहीं|
ज़िंदा कभी, जलती नहीं||
दवा न ले, बीमार की|
दवा न खा बीमार की||
देश हमारा डिजिटल है |
पर कार्ड हमारा कोने में||
हम जब चाहे जैसे चाहे|
हर कोने में जाकर वास करे||

- मेनका

Sunday, 8 July 2018

अलबेली जीवन शैली - कविता

अलबेली जीवन शैली - कविता


सावन की आई बहार तो झुमता चला गया, झूमता ही चला गया|
जीवन में मिले हर क्लास को लेता चला गया, लेता ही चला गया|
समय कि नयी किताब को पढता चला गया, पढता ही चला गया|
जीवन के हर मोड़ पर चलता चला गया, चलता ही चला गया|
सुनी पड़ी मशाल को जलाता चला गया, जलाता ही चला गया|
किस्मत की पड़ी मार तो रोता चला गया, रोता ही चला गया|
जीवन के हर जुगाड़ में जीता चला गया, जीता ही चला गया|
खाली पड़ी किताब को भरता चला गया, भरता ही चला गया||

सावन की आई बहार तो झुमता चला गया, झूमता ही चला गया|
समय के हर राग को गाता चला गया, गाता ही चला गया|
भावों के हर को फुहाड़ में भीगता चला गया, भीगता ही चला गया|
तोहफे में मिली किताब को सजाता चला गया, सजाता ही चला गया|
जीवन के हर उस भाव को समझता चला गया, समझता ही चला गया|
मौसम के हर उस स्वाद को चखता चला गया, चखता ही चला गया|
 जीवन के दिए हर जुर्म को सहता चला गया, सहता ही चला गया|
खाली पड़ी किताब को भरता चला गया, भरता ही चला गया||

सावन की आई बहार तो झुमता चला गया, झूमता ही चला गया|
भावों की पड़ी दबाव तो कहता चला गया,कहता ही चला गया|
जीवन के बनाये हर पैग को पीता चला गया, पीता ही चला गया|
समय के हर पड़ाव पर ठहरता चला गया, ठहरता ही चला गया|
ख़ुशियों के हर उस ख्वाब में खोता चला गया, खोता ही चला गया|
एहसासों के अन्तर्द्वन्द को लिखता चला गया, लिखता ही चला गया|
जीवन के हर उस रंग को रंगता चला गया, रंगता ही चला गया|
समय के हर कतार में लगता चला गया, लगता ही चला गया||

- मेनका

Tuesday, 29 May 2018

देह त्याग कर किधर गए? - कविता

देह त्याग कर किधर गए? - कविता 


हम सबको छोड़ चले पिताजी
न जाने कैसे किधर गए?
माँ का जीवन तहस-नहस कर
न जाने कैसे कहाँ गए?
किसे सुनाऊँ खुशियाँ मैं और
किसे बताऊँ अपनी व्यथा?
पापा बिन बस दुनिया अब तो,
बेगाना जैसा लगता हैं|
ऐसी क्या मजबूरी थी
निष्ठूर बन कैसे कहाँ गए?
न जाने कैसे किधर गए?

हम सबको छोड़ चले पिताजी
न जाने कैसे कहाँ गए?
याद में तेरी माँ ने अब तो,
खाना भी है छोड़ दिया|
हम सबकी आस मरोड़ चले
न जाने कैसे किधर गए?
विलख-विलख कर रोते बच्चे
कैसे छोड़ कर कहाँ गए?
किसे देख कर में इठलाऊँ?
भाग्य बड़ा बनकर इतराऊं|
बिना बताये अनकहे शब्द तुम,
लेकर कैसे कहाँ गए?

- मेनका

Monday, 12 February 2018

प्रारब्ध - कविता

प्रारब्ध - कविता


प्रारब्ध हमारी तय करती है,
नाते रिश्ते सारे|
समय की गाडी छूक-छूक करती,
चल पड़ती सब द्धारे|
हम चाहे कितना इतराले,
चाल चले नौलख्खा|
कर्मों का मौसम आयेगा,
नज़र दिखे भौचक्का|

प्रारब्ध हमारी हमें बुलाती,
दुश्मन चाहे कितना रोके|
घडी हमारी टिक-टिक करती,
हम चाहे कितना रोके|
जान से प्यारी धरती माँ है,
प्राण से प्यारी शेरावाली|
माँ से प्यारी बेटी रानी,
जग से न्यारी बहू हमारी|

स्वर्ग से सुन्दर धरा हमारी,
हम सब की शोभा अति प्यारी|
गलत सही सब वो तय करता,
मालिक है हम सबका|
दूर खड़ा वो हमें दिखाता,
राहें सब हम सबको|
गुजर गए जब गम के बादल,
दस्तक दी खुशियों की रिमझिम|

- मेनका

Tuesday, 17 October 2017

जीने की उत्कण्ठा - कविता

जीने की उत्कण्ठा - कविता



अजब हलचल सी मन में है, समझ में कुछ नहीं आता|
अजब सा ख्वाब खुशियों का, नाकारा ही नहीं जाता||
जिसे अपना समझती थी, वो गैरों से कही बढ़कर|
किसे अपना बनाऊ मैं, बता दे हे मेरे रघुबर||
सदा अपनों के दिल में ही, तुझे समझा मैं करती थी|
सदा अपनों में पा करके, मैं पूजा ही तोह करती थी||
प्रभु के प्यार के खातिर, जीना ही था मेरा मकसद|
प्रभु का हर वचन हरदम, हमारी कोशिशें जारी||
हमारा कर्म ही पूजा, इसी का ध्यान है रखा|
दरस दे ही मेरे रघुबर, परीक्षा अब न ले मेरी||

अजब हलचल सी मन में है, समझ में कुछ नहीं आता|
अजब सा ख्वाब खुशियों का, नाकारा ही नहीं जाता||
दशा इस दीन का आकर, दिशा दो हे मेरे रघुबर|
हमारी चूक हमसे ही, बता दे हे मेरे रघुबर||
मुझे लोगों के उलझन में, तो जीना ही नहीं आता|
मेरे सपनों में आकर के, मुझे जीना सिखा दे माँ||
मेरे जीवन की नौका को लगा दे, पार हे रघुबर|
मेरे औचित्य जीवन का बता दे, हे मेरे रघुबर||
मुझे सीधा सरल जीना, मेरे दिल को बहुत भाता|
गज़ब हलचल सी मन में है, समझ में कुछ नहीं आता||
गज़ब सा ख्वाब खुशियों का, नाकारा ही नहीं जाता|

- मेनका

Sunday, 28 May 2017

हमारी जीवन गाथा - कविता - पार्ट २

हमारी जीवन गाथा - कविता - पार्ट २


पार्ट - २

जीवन का ये वृक्ष अनोखा,
कभी न रहता खाली|
शिक्षा को जीवन से जोड़े,
अपनों को अपने से जोड़े|
धरती माँ की गोद में देखो,
गंगा माँ का आँचल|
सच्चाई के पथ पर देखो,
स्वर्ग बना है सुन्दर|

जीवन के ये वृक्ष अनोखा,
कभी न रहता खाली|
शिक्षा के उन हर मोती को,
लेने की करो तैयारी|
शिक्षा को उन्मुक्त गगन में,
उड़ने की हो आज़ादी|
भारत के आज़ाद भूमि पर,
मत कर नाइंसाफी|

जीवन के ये वृक्ष अनोखा,
कभी न रहता खाली|
हम सब तो माँ के बच्चे है,
फिर क्यों करे बेईमानी|
बेईमानी के बेकार शब्द पर,
परत पड़ा चालाकी का|
चालाकी तो तेज़ दिमाग का,
बहुत बड़ा अनमोल रत्न है|

जीवन के ये वृक्ष अनोखा,
कभी न रहता खाली|
तेज़ दिमाग अनमोल रत्न से,
संकट को दूर भगाओ|
भारत माँ के गोद में हमसब,
मिलकर स्वर्ग बनाओ|
कर्मों का फल सबको मिलता,
कोई न रहता खाली|

- मेनका

Saturday, 27 May 2017

हमारी जीवन गाथा - कविता - पार्ट १

हमारी जीवन गाथा - कविता - पार्ट १


पार्ट - १

जीवन का ये वृक्ष विचित्र है,
कभी न रहता खाली|
कभी दिलाये माँ का आँचल,
कभी दिखाए सपने|
कभी चखाये रिश्तों का फल,
कभी लगाए चकरें|
जीवन का ये वृक्ष विचित्र है,
कभी न रहता खाली|

राजनीती का ये वृक्ष विचित्र है,
हर घर पर होता हावी|
औरत ही औरत का दुश्मन,
कभी न खाती तरसें|
अपनों को अपने से तोड़े,
अकड़ दिखाए हरदम|
जीवन का ये वृक्ष विचित्र है,
कभी न रहता खाली|

अंतर मन में दानव बैठा,
नकली नकाब साधू के  जैसा|
शिक्षा को पैसो से जोड़े,
अंतर मन है खाली|
दुसरो के मुँह की रोटी को,
हरदम लेने की तैयारी|
जीवन का ये वृक्ष विचित्र है,
कभी न रहता खाली|

कॉपी करती जीवन जीता,
वीरों जैसा रहता|
इंसानों जैसे मानव को वो,
परेशान करे है हरपाल|
जीवन का ये वृक्ष विचित्र है,
कभी न रहता खाली|

- मेनका

मिलिट्री मैन - कविता

मिलिट्री मैन - कविता दशक चाकरी की वीरों सा| पल-भर में क्यों अनदेख किया|| पलक झपकते दौड़ गए थे| घुटनो के बल रेंग गए थे|| भारत की माटी को हमने|...