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Saturday, 8 October 2016

नेवल हॉस्पिटल - कविता

नेवल हॉस्पिटल - कविता


काश हम कस्तूरी में होते, काश हम भी नेवी में होते।
महाराष्ट्र के प्रांगण में, लोनावला के आँगन में॥

शिवाजी के गोद में, शोभ रही कस्तूरी है।
दिव्या मैम इसकी शान है तोह मिर्ज़ा सर इसके प्राण॥

प्रतिभाओं के फूलों और भावों की खुशबु से।
मरीज़ों में  डालते है वो प्राण....॥

काश हम कस्तूरी में होते, काश हम भी नेवी में होते।


अस्पताल का रिसेप्शन हो या MI रूम।
अस्पताल का डिस्पेंसरी हो या हो यहाँ का लैब॥

अस्पताल का OPD हो या हो X-Ray रूम।
अस्पताल का फॅमिली वार्ड हो या हो जेंट्स वार्ड॥

अस्पताल का आपरेशन थिएटर हो या हो रसोई घर।
अस्पताल  का सफाई हो या हो यहाँ की सुव्यवस्था॥

हर जगह बिखेरे ओह जुनूनों की रौशनी।
काश हम कस्तूरी में होते, काश हम भी नेवी में होते॥


हर मरीज़ों के घावों को तहे दिल से भरती।
हर मरीज़ों के भावों को तहे दिल से समझती॥

हर जगह बिखेरे वो प्रतिभावों की रौशनी। 
अगर प्रतिभा उसकी दिया है तोह, जूनून उसकी बाती॥

सुव्यवस्था के तेलों से हर-पल जले यह बाती।
काश हम कस्तूरी में होते, काश हम भी नेवी में होते॥


दुश्मनों के बुरी नज़रों से वो खुद को बचाती।
अच्छे पलों को वो यूँ न गंवाती॥

सहजे-सँवारे वो सबके गुणों को।
बाहर भगाये वो अपने दुश्मनों को॥

उनकी लड़ाई बिमारी से जारी।
खुशियों को रहती गले वो लगाए॥

मरीज़ों के चेहरे पर खुशियाँ वो लाती।
काश हम कस्तूरी में होते, काश हम भी नेवी में होते॥

- मेनका

Wednesday, 17 August 2016

मेरी आकांक्षा - कविता

मेरी आकांक्षा - कविता 


आश नहीं मैं आंसू बनकर - दुनिया के दिलो में बस जाऊँ।
बस आश यही है खुशियाँ बनकर - सबके दिलो में बस जाऊँ॥

आश नहीं मैं चीटर बनकर - अपनी छवि बनाऊँ।
बस आश यही है आशा बनकर - सबके मन में बस जाऊँ॥

आश नहीं मैं लालच बनकर - दुसरो का धन-दौलत ले लूँ।
बस आश यही है - संतुष्टि को अपनी छवि बनाऊँ॥

आश नहीं मैं तृष्णा बनकर - काल-कोठरी में बस जाऊँ।
बस आश यही मैं समर्पण बनकर - अपनी खुशियों में बस जाऊँ॥

आश नहीं में क्रोधाग्नि बनकर - चिताग्नि को जलाऊँ।
बस यही मैं देवाग्नि बनकर - श्रद्धाग्नि में बस जाऊँ॥

आश नहीं मैं आरक्षण बनकर - भेद भाव में बंध जाऊँ।
बस यही मैं मेधावी बनकर - अपने जीवन को चमकाऊँ॥

आश नहीं मैं नफरत बनकर - अपनी नज़रों से गिर जाऊँ।
बस आश यही मैं आकर्षण बनकर - माँ के चरणों में बस जाऊँ॥

आश नहीं मैं बाधा बनकर - दुसरो के पथ को रो कूँ।
बस आह यही जूनून बनकर - हर सपने को साकार करूँ॥

आश नहीं मैं इंसानो से - गैरों सा व्यव्हार करूँ।
बस आश यही मैं दोस्त बनकर - अपनों सा व्यव्हार करूँ॥

- मेनका

मिलिट्री मैन - कविता

मिलिट्री मैन - कविता दशक चाकरी की वीरों सा| पल-भर में क्यों अनदेख किया|| पलक झपकते दौड़ गए थे| घुटनो के बल रेंग गए थे|| भारत की माटी को हमने|...