फेसबुक - कविता
फेसबुक न होता तो हमारा क्या होता|
बच्चों की खुशियाँ है उसने दिलाई||
सारे सवालों का वो है निर्माता|
भटकते भूलो को है मंजिल बताता||
तड़पते दिलों को है राहत दिलाता|
हमारी विवशता उभर ही न पाती||
बच्चियाँ बेचारी यूँ मारी ही जाती|
बहुएँ बेचारी यूँघुट-घुटकर मरती||
सीधे सरल उन इंसानों यारो|
सरेयाम यूँ ही दबाया न जाता||
बिखड़ी पड़ी थी सामाजिक व्यवस्था|
सिल सिलेवार यूँ ही सजाया न जाता||
दबते यूँ रहते, सब सपने सभी के|
राहे कठिन थी, यूँ जीना दूभर था||
सपनों में पंखे है आकर लगाए|
ज़करबर्ग न होता तो हमारा क्या होता||
- मेनका
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