युवराज - कविता
माँ के मन का मोर बनकर - बाप का सिर मौड़ बनकर।
वंश का वंशज खड़ा है - दश का कर्णधार बनकर॥
माँ के मन का देव बनकर - ज़िन्दगी को जी रहा वह।
सोच रहा वह प्रत्येक क्षण है - आगे बढ़ने की चाह लिए॥
परिवार का उत्थान हो - या हो देश का उत्थान।
कुछ कर गुजरने की तमन्ना - हर समय है साथ लिए॥
दिन हो या रात - स्वास्थ्य हो या हो बिमार।
रिश्तों के अच्छे मोती को - ढूंढ़ रहा वह तन्हा होकर॥
आरक्षण की काली अंधियारी - देख रहा वह दूर खड़ा।
कब आयेगी मेरी बारी? हर पल है वह चाह लिए॥
माँ के मन का मोर बनकर - बाप का सिर मौड़ बनकर।
वंश का वंशज खड़ा है - देश का कर्णधार बनकर॥
- मेनका
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